Kanwar Yatra का रहस्य: परशुराम, रावण और श्रवण कुमार से जुड़ी पौराणिक कथाएं

Kanwar Yatra

Kanwar Yatra हिन्दू धर्म की एक अत्यंत पवित्र परंपरा है जो विशेष रूप से सावन मास में की जाती है। इस यात्रा में शिव भक्त (कांवड़िया) गंगा जल लाकर शिवरात्रि के मौके पर भगवान शिव के शिवलिंग पर अर्पित करते हैं।

कांवड़ का पौराणिक महत्व


यह यात्रा शिव भक्ति, सेवा और तप का प्रतीक है भक्तजन अपने सिर पर या कंधों पर ‘कांवड़’ लेकर चलते हैं, जिसमें दोनों ओर गंगाजल के कलश होते हैं। यह गंगाजल लेकर भक्त शिव मंदिरों (जैसे – काशी विश्वनाथ, केदारनाथ, बैद्यनाथ, त्र्यंबकेश्वर आदि) में जाकर भगवान शिव का अभिषेक करते हैं। मान्यता है कि गंगाजल शिव को अत्यंत प्रिय है और इससे भगवान भोलेनाथ शीघ्र प्रसन्न होते हैं। Kanwar Yatra क्यों शुरू हुई और कौन पहले कांवड़ लेकर आएं।Kanwar Yatra की शुरूआत को लेकर कई पौराणिक कथाएं और मान्यताएं हैं ।

Kanwar Yatra का इतिहास समुद्र मंथन से जुड़ा है


Kanwar Yatra की उत्पत्ति का उल्लेख शिव पुराण, स्कंद पुराण, और कई लोक कथाओं में मिलता है। इसमें सबसे प्रमुख कथा भगवान शिव द्वारा हलाहल विष पीने के समय की है। जब देवताओं और असुरों ने समुद्र मंथन किया था, तब उससे हलाहल नामक विष निकला, वह विष इतना खतरनाक था कि यदि वह पृथिवी पर गिर जाता तो पूरी सृष्टि को नष्ट कर सकता था। उस समय सभी देवता भगवान शिव के पास सहायता के लिए पहुँचे। शिव ने वह विष पी लिया, लेकिन उसे अपने कंठ में ही रोक लिया, जिससे उनका गला नीला हो गया तभी से वे “नीलकंठ” कहलाए।

भगवान परशुराम लेकर आए पहली कांवड़


भगवान परशुराम जो भगवान विष्णु के छठे अवतार माने जाते हैं । वह शिव के परम भक्त भी थे। जब उन्होंने देखा कि समुद्र मंथन से निकला हलाहल (विष) पीने से उनके आराध्य शिव विष के प्रभाव से अत्यधिक पीड़ा में हैं, तो उन्होंने निश्चय किया कि वे स्वयं पवित्र गंगा नदी से जल लाकर भगवान शिव का अभिषेक करेंगे। भगवान परशुराम हिमालय क्षेत्र से गंगाजल लेकर पैदल यात्रा की। अपने कंधों पर कांवड़नुमा (दो कलशों को बाँस या लकड़ी से जोड़कर) संरचना में जल रखा और भगवान शिव की तपोभूमि में पहुंचकर जलाभिषेक किया। इस कार्य के लिए भगवान परशुराम ने कई दिनों तक उपवास रखा और तप किया। इस परंपरा को ही बाद में “Kanwar Yatra” के रूप में जाना जाने लगा।

परशुराम जी की पुरातन परंपरा को भी निभाते हैं कावड़िए


भगवान परशुराम को Kanwar Yatra की प्रारंभिक प्रेरणा और प्रथम यति (पहले तपस्वी कांवड़िया) भी माना जाता है। उनका शिव के प्रति समर्पण और गंगा जल लाकर अभिषेक करने की कथा ने ही भविष्य की Kanwar Yatra को आकार दिया। इसलिए जब भक्त कांवड़ लेकर चलते हैं, तो वे न केवल भगवान शिव की सेवा करते हैं, बल्कि परशुराम जी की उस पुरातन परंपरा को भी निभाते हैं।
दूसरी कथा के अनुसार विष पीने से उत्पन्न अग्नि और ताप को शांत करने के लिए देवताओं और ऋषियों ने शिव पर गंगाजल चढ़ाया। मान्यता है कि इससे शिव को शांति मिली और सृष्टि की रक्षा हुई।

कांवड़ को लेकर श्रवण कुमार की कथा


कुछ अन्य मान्यताओं के अनुसार, सबसे पहले कांवड़ लेकर गंगाजल लाने वाले श्रवण कुमार माने जाते हैं। उन्होंने अपने अंधे माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराने के लिए उन्हें कांवड़ में बैठाकर पूरे देश की यात्रा कराई थी। इसीलिए “कांवड़” को सेवा, समर्पण और श्रद्धा का प्रतीक माना जाता है।

कांवड़ को लेकर रावण की कथा


Kanwar Yatra के लेकर एक पौराणिक कथा यह भी है कि लंका के राजा रावण ने भी सबसे पहले गंगाजल लाकर भगवान शिव पर चढ़ाया था। वह भोलेनाथ का परम भक्त था और उसने कैलाश पर्वत को भी उठाने का प्रयास किया था। कुछ ग्रंथों में यह वर्णन मिलता है कि रावण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए हिमालय से गंगाजल लाकर कांवड़ के माध्यम से जल अर्पित किया था।

कांवड़ लाने की धार्मिक मान्यताएँ:


गंगाजल से अभिषेक करने से शिव शीघ्र प्रसन्न होते हैं। यह यात्रा आत्मशुद्धि, तपस्या, सेवा और संकल्प का प्रतीक है। Kanwar Yatra से पापों का नाश होता है और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। यह भक्ति का चरम रूप है जिसमें भक्त पैदल चलकर या नंगे पाँव सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा करते हैं।

आधुनिक Kanwar Yatra का स्वरूप


सावन मास में करोड़ों शिव भक्त हरिद्वार, गंगोत्री, गौमुख, वाराणसी, आदि गंगा तटों से जल भरकर अपने स्थानीय शिव मंदिरों में चढ़ाते हैं। इसमें डाक कांवड़ (तेज गति से भागते हुए जल ले जाना) और बैठक कांवड़ (रुक-रुककर जल ले जाना) जैसी परंपराएं भी हैं।

निष्कर्ष :


Kanwar Yatra न केवल धार्मिक परंपरा है, बल्कि यह सेवा, त्याग और शिवभक्ति का प्रतीक है। भगवान शिव पर जल चढ़ाना उनके उस त्याग को सम्मान देना है जब उन्होंने सृष्टि की रक्षा के लिए हलाहल विष पिया था।

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